कुछ पुरानी भूली बिसरी लखनऊ [अवध] की यादें।
बस यूँ समझिये की मैं लखनऊ की उस तहज़ीब का चश्मदीद गवाह हू जब चारबाग स्टेशन पर विभिन्न प्रकार की हत्थे वाली डोली ढेरों खरी रहती थी और उतरने वाली सवारी की वैगमों को डोली में बैठा कर कंधे पर डोली लेकर चलते थे, चारबाग से गोला गंज, चौक, ऐशबाग, इत्यादि जगहों के लिये, और जब डोली तंग गलियों से गुज़रती थी तब हम सब बच्चे ज़ो गलियों मैं थोड़ी सी जगहा मिलने पर वहाँ कभी कंचे, कभी गुल्ली डंडे भी खेला करते थे,
डोली [ पालकी ]
चारबाग रेलवे स्टेशन
कंचे खेलते हुए
गूल्ली डंडे का खेल
उस वक़्त डोली के साथ हुक कारी भरता व्यक्ति गुहार लगाता चलता था की, बच्चों हट जाइये बेगम की सवारी आ रही है, और उनके साथ के खाविंद बगेरह भी बड़े शान से अपनी अपनी दाढ़ियो पर हाथों को फेरते हुए खरामा खरामा डोली के साथ पैदल चला करते थे, तब हम सब बच्चे भी डोली के साथ हो लिया करते थे और डोली को अपने मोहल्ले की हद के बाहर तक छोर कर आते थे, और यदि डोली हमारे मोहल्ले मैं रुकी तब हम सब बच्चों का झुंड उस दरवाजे की दहलीज पर इकट्ठे हो कर उस वक़्त का इंतज़ार करते थे जब किसी खाश मेहमान के आने पर कभी कभी हम सभी को मीठा भी मिल ज़ाया करता था।
लखनऊ शहर में और आस पास के इलाके में परिंदों की लड़ाई के मुकाबले का शौक उस समय हर अमीर और हर गरीब कर सकता था। बड़े शौक और मेहनत करके परिंदों को तैयार करते थे। परिंदों में मुर्गे, बटेर, तीतर, बुलबुल, कबूतर, और तोते इत्यादि लड़ते हमने देखे है। ज़ो देखने में दर्दनाक जायदा और मनोरंजक कम हुआ करते थे। कबूतर बाज़ी का शौक़ तो हमारे घर के आस पास १५,२० घरों के छतो पर देखने को मिलता था। लोग अपने घर की छतो से अपने कबूतरो के झुंड को उड़ा देते और कुछ समय के बाद सीटी बजा कर वापस बुलालिया कर ते,
छत पर कबूतरो का जमघट
कबूतरो को हाथो से दाना खिलाते हुए
परिंदो की लड़ाने की तैयारी
लड़ते हुए परीदे
वो भी बड़ा मज़ा था जब पतंगों को घर की छत्तों से उड़ाना एक नशा बना हुआ था
हम सब स्कूल से आकर सीधे छतो पर दिखाई दे ते थे । यह शोक हिन्दुओं में जायदा देखा जाने लगा था। पतंग बाज़ी के पुराने नामी उस्ताद मीर अमदु, ख़्वाजा मिट्ठ्न, और शेख़ इमदाद हुआ करते थे और इन सब की अमीरों में बड़ी कदर हुआ करती थी । धीरे धीरे पतंग का रूप कनकौवा ने ले लिया जिस का ईजाद लखनऊ में ही हुआ। यह दो प्रकार का हुआ कर ता है, १- पत्तेदार कनकौवा, २- फुदनेदार कनकौवा, ज़ो देढ़कन्ना कहलाता है, आज कल यही प्रचलित भी है।
धीरे धीरे मनचले बच्चों के द्वारा छोटी छोटी डोरों की सहायता से कनकौवा की डोर को फ़ाश कर खेच लेते थे। इसे कहते थे खेच लड़ाना। कनकौवा लड़ाने वाले इन बच्चों से नाराज़ रहा करते थे।
पतंगो का शोक नवाबो के समय मैं
कंकौवा [ पतंगो का प्रकार ]
गीत और संगीत प्राचीन काल में आराधना और प्रेम के संदर्भ में प्रकीर्तिक अनुभव के सहारे हुआ, परन्तु हमारी यादों में सारंगी, सरोद, शहनाई, बरबत, और रबाब ज़ो कवाल्लों के पास अक्सर होते थे।
गली कुंचों के नुककर पर किसी तीज त्योहार या उर्स की जमघट लगती और हम सभी परिवारों के साथ शाम को सुनने जाते ज़ो रात के २.३० बजे तक चलती थी। जिसमें संतों के भक्ति गीत और सूफिओ की संगीत में बैठ कर मारीफ़त की गजले गाते सुनते थे।
सारंगी
सरोद
शहनाई
बरबत
रबाब
देखते देखते सवारी में तांगा, इक्का, का दौर अपने उचान पर था ज़ो देखते देखते लुप्त हो गया। इक्का एक या दो सीट वाली घोड़ा गाड़ी होती है, जबकि तांगा कई सीट वाली होती है
एक्का
तांगा
अब आज लखनऊ सहर से वो तहजीब, अदब, वो शान और शोहरत, का लुत्फ ज़ो अमीर और गरीब दोनों अपने अपने तरीकों से बराबर उठाया कर ते थे वो आज लुप्त सा होता ज़ारहा है, बस एक यादें शेष रह गई है
दीपक वर्मा
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