बचपन की यादों के कुछ अंस – 1

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                         स्थान- लखनऊ

क्या दिन हुआ करते थे? हम तब अपने नानी के साथ लखनऊ में रह कर क्लास ८ में पढ़ाई कर रहे थे, क्यों की हमारे पिताजी शुगर मिल में अभियंता के पोस्ट पर कार्यरत थे, शुगर मिल भारत में तब गाओ में हुआ कर्ता था, इसलिए अछी शिक्षा के लिए हमारा दाखिला लखनऊ में क्लास पाँचवीं में करवा दिया गया था।

           कभी कभी नानी थोरे से पैसे दे दिया करती थी जब हम छितवापुर पजावा से अमीनाबाद स्थित स्कूल में पढ़ाई करते थे और अपना बस्ता लटका कर पैदल ही घर से स्कूल ज़ाया और आया करते थे।

           स्कूल से लौटते समय कभी कभी जब नानी कुछ पैसे दिया करती थी तब रत्ती चाचा की छोटी सी दुकान ज़ो हमारी उँचाई से थोरी सी उची हुआ करती थी उस पर रत्ती चाचा विराजमान रहकर खुद अपने हाथों से पत्तल में खस्ता, कचोरी, इत्यादि, सभी सामग्री डाल कर ग्राहकों को दिया करते थे। सबसे खास बात यह थी की वही से बैठे कर ग्राहकों की भीड़ में उन्हें यह पता रहता था की कौन पहले आया या कौन किस के बाद है, जहां तक हमें याद है की उनकी शायद आंखों में प्रॉब्लम भी थी फिर भी वो काफी एक्टिव थे। उनके हाथों के बने कचोरी या खस्ते मे इतना स्वाद था की ज़बरदस्ती कर के थोरा आलू, छोले पत्तल के बने दोने में ले लिया करते थे वो भी रत्ती भैया की रट लगा कर, क्योंकि सभी उनको रत्ती भैया ही कहते थे। उमर का अंतर उनके हाथों से बने सामग्री के आगे कोई माने नहीं रखता था। उनके हाथों और जुबान में एक प्यार का आभास था, ज़ो खस्ता कचोरी के स्वाद को चार चाँद लगा देता था।             

        और कभी कभी मामू के कचालू के भी मज़े लेते हुए स्कूल से घर आना होता था। मामू अपनी दुकान एक खोंचे में लगा कर फिर अपने सिर पर रख कर फेरी लगाया करते थे परन्तु कचालू अलग अलग चीज़ों से बना कर और उपर से उनके घर के बने मसाले, चटनी का मज़ा स्वाद को बढ़ा देता था। आज भी याद कर के मुंह में ताज़गी का

दीपक वर्मा [ dvdigitalcreator.com ]

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